हे केशव,
मेरा मन अभी शांत है,
बहुत शांत है।
तुमने क्या कहा — मैंने न समझा,
बस तुम्हारे शब्द सुने।
हे केशव,
अब मेरा मन शांत है।
तुम हो भी या न हो,
शिव हैं भी या नहीं,
मैं विश्वास करूँ या न करूँ,
कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता,
क्योंकि मेरा मन अभी शांत है।
मैं यश पाऊँ या अपयश,
शक्तिमान बनूँ या शक्तिहीन,
भोग-विलास करूँ या असंख्य पीड़ा सहूँ,
कुछ भी अंतर नहीं पड़ेगा —
मेरा मन अभी शांत है।
मैं जिऊँ या मरूँ,
कोई जिए या मरे,
मैं अकेला रहूँ या भीड़ में,
न दोस्त, न दुश्मन,
न अपने, न पराए —
कुछ भी फ़र्क़ नहीं पड़ता।
क्योंकि मेरा मन अभी शांत है।
मैं वाद करूँ या विवाद,
आस्तिक बनूँ या नास्तिक,
पाप करूँ या पुण्य —
कुछ भी फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, केशव।
क्योंकि मेरा मन अभी शांत है,
मेरा मन अभी… शांत है।
— गजानन